Sumit Maurya

September 3, 1984 - Earth
Send Message

मेरे आंसू

वो रेंगते थे फिर चलना आ गया उनको
अब भागते है बन सहारा
वो मेरे आंसू

चश्मदीद है बावक्त मेरी तनहाइयों के
के अब तो बात करते हैं मूझी से
वो मेरे आंसू

भटकते थे वो तकियों के जंगलों में नदी बन कर
के अब वो झील से गुमसुम मेरे ही साथ रहते हैं
चटकती गर्मियों में घाव सीते है मरहम बनकर
के अब तो यार बन बैठे मेरे ही
वो मेरे आंसू

वो रूठे पर निकलते थे
सभी वो दर्द सहते थे
कभी सौ बात कहते थे
बड़े चुपचाप बैठे हैं मुझी से
वो मेरे आंसू

वो दारू का ज़माना था
जहां बैठो मयखाना था
कभी ना साथ तब छोड़ा
पैमानों पर चिपक बैठे नमक से
वो मेरे आंसू

आदत ए मजबूर जैसी है
बदन में चूर जैसी है
खुशियों में भी निकलते हैं
बड़े दिल फेक बन बैठे अभी से
वो मेरे आंसू

के अब तो यार बन बैठे मेरे ही
वो मेरे आंसू
298 Total read