Shakeeb Jalali

1 October 1934 – 12 November 1966 / Aligarh / British India

लौ दे उठे वो हर्फ़-ए-तलब सोच रहे हैं - Poem by Shakeeb Jalali

लौ दे उठे वो हर्फ़-ए-तलब सोच रहे हैं
क्या लिखिये सर-ए-दामन-ए-शब सोच रहे हैं




क्या जानिये मन्ज़िल है कहाँ जाते हैं किस सिम्त
भटकी हुई इस भीड़ में सब सोच रहे हैं



भीगी हुई एक शाम की दहलीज़ पे बैठे
हम दिल के धड़कने का सबब सोच रहे हैं



टूटे हुये पत्तों से दरख़्तों का त'अल्लुक़
हम दूर खड़े कुन्ज-ए-तरब सोच रहे हैं




इस लहर के पीछे भी रवाँ हैं नई लहरें
पहले नहीं सोचा था जो अब सोच रहे हैं

हम उभरे भी डूबे भी सियाही के भँवर में
हम सोये नहीं शब-हमा-शब सोच रहे हैं
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